वर्तमान समय भविष्य का निर्धारण करता है इसलिए समसामयिक घटनाओं का सिर्फ मूकदर्शक नहीं बल्कि बदलाव की अलख जगानी चाहिए. एक मानवतामूलक व्यक्ति को कभी इसकी परवाह नहीं करनी चाहिए कि उसके पीछे जमाना है या नहीं बल्कि जमाने की आंखों में आंखें डाल निर्भीक होकर बात करनी चाहिए चाहे गौरी लंकेश का ही उदाहरण क्यों न चरितार्थ हो. हमारा और आपका एक कदम ऐसे लोगों की फौज खड़ा करने का माद्दा रखता है जो सामाजिकता और मानवाधिकार के लिए खड़े हो. पग-पग पर मुश्किलें हैं, खतरा है लेकिन हमारी सोच, हमारे विचार हमारी ताकत है.

यह वह दौर है जहां दुनिया में हर इंसान को दूसरे इंसान से दिक्कत है. हर व्यक्ति और हर समुदाय एक दूसरे पर लांछन लगाने में लगा हुआ है, खुद को बेहतर बताने में लगा हुआ है. समाज में इस तरह की मानसिकता का व्यापार चल पड़ा है, मानसिकता बनाई जा रही है. विपक्षी विचार के लोग दबाये जा रहे हैं जिनकी संख्या भी अपेक्षाकृत रूप से कम है.

जब भी हम मुख्यधारा की मीडिया से रूबरू होते हैं मालूम पड़ता है कि कई प्रकार के जानवर आपस में उलझ रहे हैं, मारपीट कर रहे हैं. सब का एक ही मकसद - मैं सबसे बेहतर ! मेरे अंदर ही वह काबिलीयत जो हालात बदल सकते हैं! असल मुद्दे कहीं भी चर्चा में नहीं है. पश्चिम से लेकर पूरब तक असल मुद्दों पर पर्दा डाल दिया गया है.

लोगों को देश और धर्म के प्रति आशंकित किया जा रहा है. पश्चिम में दूसरे देशों के लोगों के रोजगार के अवसर खत्म करने की बात हो रही है तो वही भारत जैसे विविधता वाले देश में टोपी और तिलक की बात हो रही है. रोजगार, समानता, धर्मनिरपेक्षता, और मानवता सबसे निचले पायदान पर ला दिए गए हैं.

पुराने जमाने में जब शिक्षा का ज्यादा अभाव था तब भी बहुत सारे लोग विविधता और मानवता के पक्षधर थे. उनमें आत्मीयता का ज्ञान था. आज इस पढ़े लिखे समाज में मुझे ज्ञान का अभाव मालूम पड़ता है. आज सामुदायिक दूरियां ही फिर से बढ़ना नहीं शुरू हो गई बल्कि लोग एक दूसरे के जानी दुश्मन भी बनते जा रहे हैं. जब बर्मा के हालात याद आते हैं तो मुझे लेडी चांसलर की नीति याद आती है. मैं मर्केल, कैलाश सत्यार्थी, और मलाला यूसुफजई जैसे बहुत सारे लोगों का धन्यवाद करता हूं जो अभी तक मानवता के मूल्यों को जिंदा रखे हुए हैं. आज ऐसा माहौल है जहां दुनिया सिर्फ अपनी बात करती है. दूसरों को हराने की बात करती है. बहुत कम ही लोग ऐसे बच्चे हैं जो साथ जीने की बात करते हैं. 

दुनिया कितनी आत्मकेन्द्रीत है जब अंतरराष्ट्रीय स्तर की बात होती है तब बात राष्ट्र की होने लगती है, जब राष्ट्र की बात होती है तो पहचान राज्य से होने लगती है और बात जिला से होते हुए परिवार फिर व्यक्ति विशेष तक पहुंच जाती है. हर व्यक्ति खुद को ज्यादा चालाक और बेहतर समझता है तथा खुद को संपन्न बनाना चाहता है. लोकतंत्र और मानवता का भी यही लक्ष्य है कि सभी स्वतंत्र और संपन्न बने. लेकिन क्या दूसरों की सफलता और कोशिशों को खतरे में डाल कर ? दूसरों को बुरा कह कर खुद अच्छा बनने की कवायद बुरी लगती है और एक दूसरे के प्रति घृणा पैदा करती है.

हम चाहे किसी भी देश से संबंध रखते हो हमारा सामुदायिक परंपरा कुछ भी हो पर हमें याद रखना चाहिए कि हम पहले मनुष्य हैं और पृथ्वी हमारा घर तथा पर्यावरण की शुद्धता हमारी जरूरत.

डॉक्टर रविंद्र नाथ टैगोर ने कहा था मुझे हीरे की कीमत पर शीशे नहीं चाहिए. हम राष्ट्र की बात करके, सामुदायिक ध्रुवीकरण कर के तात्कालिक फायदा तो ले रहे हैं पर इसके दीर्घकालिक परिणाम की चिंता से चिंतामुक्त है!

संख्या बहुत कम है पर आज ऐसे लोगों को आगे आने की सख्त जरूरत है जो दूसरों के लिए सहानुभूति रखते हो. दूसरे पक्ष के लिए सम्मान की भावना रखते हो. जिनके लिए स्वतंत्रता और मानवता सर्वोपरि हो.

मेरी जिंदगी का एक किस्सा मुझे बहुत बड़ा सबक दे गया जब मैं देहरादून में था. अपनी पत्रकारिता की शिक्षा के बाद मैं देहरादून में ही रहने लगा था. करीब तीन या चार ईद की नमाज मैंने घर से दूर रहकर पढ़ा. हर साल मेरे कमरे पर सेवैयां खाने मेरे कुछ गिने-चुने दोस्त आया करते थे. एक दफा की बात है जब मेरे मित्र ने मुझसे इस्लामिक टोपी की दर्ख्वास्त की. साथ में फोटो खिंचाई और फ़ेसबूक पर डाल दिया. पांडे जी को सुझाव स्वरुप कुछ ज्ञानी लोगों ने शारीरिक परिवर्तन भी कराने की सलाह दे डाली. मैं समझ सकता हूं पांडे जी ने एक साहसिक काम किया था. कुछ दिनों बाद मैंने चेक किया कि वह फोटो अभी भी उनके टाइमलाइन पे है या पांडे जी दबाव में आ गए. बहुत अच्छी बात है आज भी वह फोटो मौजूद है.

ठीक उसी प्रकार जब भी मैं अबीर के रंगों में रंगता हूं या नवरात्र की मेला बच्चों के साथ घूमने जाता हूं तो बहुत से घुरते हुए चेहरे मुझे देखने को मिलते हैं तो कई बार कमेंट भी सुनने को मिलता है. क्या एक दूसरे को सम्मान की नजर से देखना, सामाजिक सौहार्द की दिशा में आगे बढ़ना पाप है? क्या एक दूसरे की खुशी में शरीक होना गलत है? 

जब से दुनिया बनी है तब से आज तक कई धर्मों ने आकार लिया है और वही धर्म कई मतो में अलग बटते जा रहे हैं. इस दुनिया में चाहे वह हिंदू हो, सिख हो, बौद्ध हो, जैन हो, क्रिश्चियन हो, या मुस्लिम हो इनके कई सारे सेगमेंट हैं और खुद को बेहतर बताने में लगे हुए हैं. कौन बेहतर है इसका फैसला आज तक न हुआ है ना हो पाएगा. इसका सिर्फ एक ही समाधान है – सब का सम्मान.

मैं नहीं चाहता जब मैं इस दुनिया से रुखसत होऊँ तो मेरे पीछे आंसू बहाने वाले सिर्फ मेरे समुदाय से हो. मेरे बच्चों को दुलारने वाले सिर्फ मेरे समुदाय के लोग हो.

मैं चाहता हूं जब मैं दुनिया छोड़ू तो गिरजाघर में मेरे लिए मोमबत्तीयाँ जले, दुआओं के लिए हाथ उठे और आरतियों के लिए थालियां सजाई जाए. मेरी पहचान सिर्फ मेरे समुदाय से नहीं बल्कि हर वर्ग और समुदाय से हो! मानवता के लिए मेरे नाम का इस्तेमाल किया जाए! क्या हम सभी को सामाजिक सौहार्द के लिए कदम से कदम मिलाने की जरूरत नहीं है जहां नफ़रत नहीं सिर्फ प्रेम हो! 


Md. Mustaqueem
M A in Communication
Doon University, Dehradun

The writer, a native of Gopalganj in Bihar, has worked as a special correspondent to the Indian Plan magazine in Uttrakhand and is currently working as a teacher in a government middle school in Siwan district of Bihar.