संसार में कुछ महापुरुष ऐसे होते है जिनकी जीवनी ही उनके समकालीन इतिहास का अंग बन जाती है. बिहार की रत्नगर्भा भूमि ने जिन राष्ट्रीय व्यक्तित्वों का सृजन किया उसमे बिहार विभूति डॉ अनुग्रह नारायण सिंह अग्रणी श्रेणी के राष्ट्रनायकों में शुमार रहे है. आधुनिक बिहार राज्य के सृजन से स्वतंत्रता तक अनुग्रह बाबू बिहार के आधुनिक इतिहास का अभिन्न अंग रहे है. आज जहाँ समस्त बिहार अपने इस अनमोल रत्न को उनकी १३२ वी जयंती पर श्रद्धापूर्वक नमन कर रहा है, वर्तमान परिस्थितियों में राज्य को अनुग्रह बाबू जैसे दिव्य व्यक्तित्व से प्रेरणा लेने की कही ज्यादा जरुरत है.


वे देश के स्वाधीनता-संग्राम के उन महान नायकों में एक थे जो ना केवल राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के पद चिह्नों पर उनके प्रिय अनुयायी और प्रमुख सहयोगी बनकर जीवन पर्यन्त चले और साथ ही स्वतंत्रता के पश्चात अपने गृह राज्य को अपनी निष्ठा, अध्यवसाय, प्रतिभा एवं उत्कृष्ट प्रशाशनिक क्षमता से आगे बढ़ाया. जो भूमिका सरदार पटेल ने अखिल भारतीय स्तर के शासन में निभाई थी वही भूमिका बिहार के प्रशासन और मंत्रिमंडल में अनुग्रह बाबू की थी. संयोग देखिये जहाँ पटेल गुजरात में गांधीजी द्वारा चलाये गये प्रथम सत्याग्रह के महत्वपूर्ण अंग थे, अनुग्रह बाबू ने १९१७ के चम्पारण आंदोलन में बड़ी भूमिका निभाई थी जो हिंदुस्तान में अपने तरह का पहला सत्याग्रह था और जिसने गाँधी जी को राष्ट्रीय पटल पर सुविख्यात किया. आज़ादी के बाद उन्होंने बिहार के प्रशासनिक ढांचा को तैयार करने का काम किया था। उनके कार्यकाल में ही दक्षिणी बिहार में उद्योग-धंधे का जाल बिछा और उत्तरी बिहार में कृषि का चहुँमुखी विकास हुआ.

देश के पहले राष्ट्रपति देशरत्न राजेंद्र प्रसाद के शब्दों में "मेरा परिचय अनुग्रह बाबू से बिहारी छात्र सम्मेलन में ही पहले पहल हुआ था। मैं उनकी संगठन शक्ति और हाथ में आए हुए काम में उत्साह देखकर मुग्ध हो गया और वह भावना समय बीतने से कम न होकर अधिक गहरी होती गई। बिहार में शायद ही कोई ऐसा कार्य हुआ हो जिसमे उनका सहयोग और सानिध्य मुझे ना मिला हो".

वैसे तो राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर और विद्वान लेखक लक्ष्मी नारायण सुधांशु ने बिहार विभूति की जीवनी पर केंद्रित अनुग्रह अभिनन्दन ग्रन्थ की रचना करके आधुनिक इतिहास को एक अनमोल संग्रहणीय धरोहर प्रदान की है एवं अनुग्रह बाबू की आत्मकथा "मेरे संस्मरण"; बिहार के स्वतंत्रता आंदोलन और इसके नायकों का जीवंत दर्पण है जिसे समय समय पर राज्य सरकारों ने पुनः प्रकाशित कराया है. वर्तमान परिवेश में राज्य के निति निर्धारकों और सत्ता के शीर्ष पर विद्यमान हस्तियों के लिये अनुग्रह बाबू का निश्छल जीवन और उनकी अदभुत सादगी आदर्शवादिता का वह श्रेष्ठतम पैमाना है जिसके अल्प भाग को भी अगर वह आत्मसात करले तो बिहार हमारे राष्ट्र का सर्वोच्व राज्य बन जायेगा और सरकारें केवल राज नहीं करेंगी बल्कि जनता के राज को चलाएंगी.

अनुग्रह बाबू १३ वर्षों तक बिहार प्रांत के उप-प्रधानमंत्री और आज़ादी के बाद उपमुख़्यमंत्री सह वित्त मंत्री रहे और साथ ही एक दर्ज़न विभागों के मंत्री रहे परन्तु उनमे एक आम कार्यकर्ता की स्पिरिट और चमत्कारिक सरलता थी, वे सरकारी यात्राओं में भी स्वयं की तनख्वाह से भोजन करते थे और अविभाजित बिहार के सुदूर हिस्सों तक बिना किसी काफिले और पुलिस सुरक्षा के अपनी खुद की गाडी से जाते थे. यही कारण था की बिहार के जनमानस ने उन्हें बिहार विभूति के अलंकार से सुशोभित किया और बिना किसी प्रचार प्रसार के उनके आगमन पर भीड़ जमा हो जाया करती थी.

ये वह दौर था जब तार और टेलीफोन ही संवाद का साधन थे पर वह भी बड़े शहरों में ही सुलभ थे. लगभग १६-१६ घंटे लगातार काम करने के लिये विख्यात अनुग्रह बाबू के कमरे में एक तरफ जहाँ वरिष्ठ प्रशासनिक पदाधिकारी खड़े रहते थे, वही दूसरी तरफ सत्तू बेचने वाले और फेरी लगाने वाले. आज़ाद बिहार ने ऐसा जनसेवक और जननेता दुबारा देखा ही नहीं. शायद ये उनका लोगों से भावनात्मक लगाव ही था जिससे अनुग्रह बाबू सर्वप्रथम १९२५ में कौंसिल ऑफ़ एस्टेट्स (वर्तमान में राज्यसभा) के सदस्य बिहार प्रान्त से सबसे अधिक मतों से जीतकर बने थे. उन दिनों राजेंद्र प्रसाद पटना म्युनिसिपेलिटी के चेयरमैन थे और अनुग्रह नारायण वाईस चेयरमैन; इस बेहतरीन विजय ने उन्हें केंद्रीय विधायिका के प्रमुख बिहारी सदस्य में से एक के रूप में पहचान दिलाई. १९३४ के प्रलयकारी भूकंप के बाद राजेंद्र बाबू के नेतृत्व में राहत कार्य के लिए बनी समिति में अनुग्रह बाबू ने बेहतरीन काम किया, शायद ही राज्य का कोई ऐसा प्रभावित क़स्बा रहा हो जहाँ वे स्वयं नहीं गये.

लोकनायक जयप्रकाश नारायण जी, जो बिहार विद्यापीठ में अनुग्रह बाबू के विद्यार्थी रहे थे और ताउम्र उनके साथ भावनातमक रिश्ता बरक़रार रखा के इस कथन को याद करना जरुरी होगा जो उन्होंने अनुग्रह स्मृति न्यास के अध्यक्ष के रूप में कहा था: "आधुनिक काल में बिहार में अनुग्रह बाबू वैसे विरले ही महापुरुष हुए है जिनके प्रति राज्य सदैव कृतज्ञ रहेगा और जिनका नाम और योगदान इतिहास में शाशवत रूप से बरक़रार रहेगा. ये राज्य भाग्यशाली रहा है जिसे अनुग्रह बाबू जैसा रत्न मिला."

कहना अतिशयोक्ति ना होगा की राज्य सरकार के मुखिया अगर उनके प्रिय मित्र श्री बाबू थे तो उसके ह्रदय और प्राण अनुग्रह बाबू. बिहार विभूति अगर चाहते तो प्रांत में प्रथम चुनाव के बाद ही बिहार के प्रथम प्रधानमंत्री (मुख्यमंत्री) आसानी से बन सकते थे परन्तु उन्होंने स्वयं श्री बाबू का नाम प्रस्तावित करके मिसाल पेश की. उस वक़्त के प्रमुख समाचार पत्र द इंडियन नेशन की अगले दिन की हेडलाइंस थी 'अनुग्रह बाबू की उदारता से प्रथम लोकतान्त्रिक मंत्रिमंडल के गठन का रास्ता आसान". 

अनेक बार प्रधानमंत्री नेहरू ने अनुग्रह बाबू को केंद्रीय सरकार में शरीक होने का प्रस्ताव दिया पर वे बिहार छोड़ने के लिये कभी राज़ी नहीं हुए. बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री श्री सत्येंद्र नारायण सिंह सिंह ने अपनी चर्चित आत्मकथा में इस बात का वर्णन किया है की जब १९५७ में गृह मंत्री गोविन्द बल्लभ पंत जी ने अनुग्रह बाबू से मध्य प्रदेश का राज्यपाल बनने का आग्रह किया तो अनुग्रह बाबू राज़ी नहीं हुए; उनकी हर साँस और जीवन कर हर पल अपनी जन्म भूमि बिहार पर न्योछावर था, जिस बिहार को कभी बंगाल से अलग प्रान्त बनवाने के लिये उन्होंने भी संघर्ष किया था.

१९४७ में अंतरराष्ट्रीय श्रम संघ के बैठक में नव स्वतंत्र भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए जब अनुग्रह बाबू ने १५० देशों के प्रतिनिधिओं को सम्बोधित किया तो पूरा अंतर्राष्ट्रीय सदन मन्त्रमुग्घ होकर उन्हें सुनता रह गया और सभी ने खड़े होकर उनका अभिवादन किया. लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स ने उन्हें विशेष रूप से आमंत्रित कर उनका व्याख्यान करवाया और एक अर्थशास्त्री के रूप में उनकी सुविख्यात पुस्तक "इकनोमिक प्लानिंग फॉर ३०० मिलियन" की एक प्रति आज भी वहाँ उपलब्ध है.

१९५७ के आम चुनाव के बाद जब वे लगातार तीसरी बार बिहार के उपमुख्यमंत्री सह वित्त मंत्री बने तब उनके सरकारी आवास के लिये नया कालीन लाया गया जिसमे छिद्र करके टेलीफोन का तार लगाना था पर वे सरकारी कालीन में एक सूक्ष्म छिद्र करने के लिये भी राज़ी नहीं हुए और एक दिन बाहर बिछे टेलीफोन के तार में उलझ कर गिर गये और फिर कभी नहीं उठ सके. राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद उन्हें देखने के लिये विशेष रूप से बिहार आते थे और बिहार विभूति के अंतिम लम्हे से पहले तक राजेंद्र बाबू सिरहाने के पास बैठे रहे थे, लाल बहादुर शास्त्री और जेपी तो उनके निवास स्थान पर आकर ही रह गये थे, कांग्रेस अध्यक्ष देभर साहेब और प्रधानमंत्री नेहरू हर सप्ताह उनसे मिलने आते रहे.

एक तरफ आज़ाद भारत के सभी गणमान्य केंद्रीय मंत्री, राज्यों के राज्यपाल और मुख्यमंत्रीगण और दूसरी तरफ बिहार के जनमानस का सागर. लगभग १ महीने तक लोग अपने अनुग्रह बाबू के लिये निरंतर दुआएं करते रहे मगर अवतारों का शरीर भी नश्वर होता है, उन्होंने 5 जुलाई 1957 को अपना देह त्याग दिय और भारत के स्वतंत्रता संग्राम का एक और प्रकाशदीप बुझ गया.

अनुग्रह बाबू के निधन पर राष्ट्रीय शोक घोषित किया गया. अपने अनन्य मित्र श्री बाबू और प्रिय पात्रों बीर चंद पटेल, शास्त्री जी, सत्येंद्र बाबू, जयप्रकाश जी, बिनोदानंद झा और अपने पौत्र प्रमोद बाबू के कन्धों पर अनुग्रह बाबू ने अपनी अंतिम यात्रा पूरी की. वह एकलौता मौका रहा जब दानापुर छावनी से भीड़ को नियंत्रण करने के लिये पहले से ही सेना को लगा दिया गया था.

बिहार विभूति हमारे बीच नहीं है परन्तु आज भी बिना उनकी चर्चा के बिहार का गौरवशाली इतिहास अधूरा रह जाता है. तुम केवल नश्वर न, अनश्वर भी थे, मानव थे तुम सही और कुछ ईश्वर भी थे, इस लिये जब चल गये तब विभूति बाकी है, चारो और अनुग्रह के अनुभूति अभी बाकी है.

उनकी १३२ वे जन्म जयंती पर उन्हें कोटि कोटि नमन.


प्रो (डॉ.) लक्ष्मी नारायण सिंह

निदेशक, होम-साइंस, मगध यूनिवर्सिटी और पूर्व प्राचार्य ए एम् कॉलेज, गया